
लखनऊ की एक गरम दोपहर और उससे भी गरम अखिलेश यादव की प्रेस कॉन्फ्रेंस। समाजवादी पार्टी के मुखिया ने भाजपा पर जमकर हमला बोला और आरोप लगाया कि बीजेपी अब भागवत कथा को भी राजनीतिक बैनर के नीचे लपेटना चाहती है।
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क्या बीजेपी सच में लोकतांत्रिक है?
अखिलेश का सवाल बहुत ‘नर्म’ था, लेकिन उसमें चुभन ज़्यादा थी, “क्या भारतीय जनता पार्टी वास्तव में लोकतांत्रिक है या बस चुनाव जीतने की मशीन बन चुकी है?”
सवाल सीधा था, लेकिन जवाब में सन्नाटा छा गया — शायद इसलिए कि इन दिनों लोकतंत्र की परिभाषा बदल गई है, “जो हम कहें वही सही, बाकी सब ग़लत।”
पीडीएफ समाज पर डर का एजेंडा?
अखिलेश ने तंज कसा कि बीजेपी के कुछ नेता “पीडीएफ” यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समाज को केवल एक डाउनलोडेबल टारगेट समझते हैं — जिसे समय आने पर “डिलीट” भी किया जा सकता है।
‘श्रीमद भागवत’ अब सिर्फ बाय इन्विटेशन?
कथावाचक के साथ हुई मारपीट पर अखिलेश बोले — जब श्रीकृष्ण की कथा सबके लिए है, तो किसी को रोकने का हक़ किसे है? क्या अब कथा सुनाने के लिए भी जातिगत प्रमाणपत्र लगेगा?
उन्होंने बताया कि भगवान श्रीकृष्ण ने तो कभी “कुलीन कार्ड” नहीं दिखाया, पर लगता है अब “कथा एंट्री बाय रिजर्वेशन” चल रही है।
कथावाचन या कथा-वाणिज्य?
अखिलेश ने ये भी कहा कि आज कथा कहने से ज़्यादा, उसका रेट तय करने पर जोर है। कुछ लोगों ने ‘धर्म’ को भी ‘कमाई’ का साधन बना दिया है। भक्ति अब भाव नहीं, ब्रांड बन गई है।
कथा, कुर्सी और कंट्रोल
राजनीति अब कथा तक पहुंच गई है। जहाँ पहले रामायण सुनाई जाती थी, अब राम की जाति पूछी जाती है। जहाँ श्रीकृष्ण के प्रेम की बातें होती थीं, अब वहाँ वोट बैंक की गिनती होती है।
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